मेरे होठों पे जिस ऋतू में तेरी बातें नहीं होती।
वो सावन लाख़ हो उस ऋतू में बरसातें नहीं होती
पहन कर चलती है वो पैरो में पायल
और कहती है हमे शोर पसंद नही
….गुलजार साहब ….
लाफानी उलफ़त बाशिंदे हम वहां के
सराय है ज़बरेज़मा मुसाफिर हैं हम
अपने लहजे पे ग़ौर करके बता…
लफ़्ज़ कितने हैं ख़ंजर कितने हैं…
अगर समझ पाते तुम मेरी चाहत को, तो हम तुमसे नहीं, तुम हमसे मोहब्बत करते !!
नसीहत नर्म लहजे में ही अच्छी लगती है क्योंकि दस्तक का मकसद दरवाजा खुलवाना होता है तोड़ना नहीं
कच्चे धागे की गाँठ लगाकर ही, पक्के रिश्तों की मन्नतें माँगी जाती है…
दो घड़ी मिले थे हम सिर्फ चार बातें की
मगर दो टके के लोगों ने हज़ार बातें की
फासले बड़ा लो , हमने कब ऐतराज़ किया ,भुला ना सकोगो वो एहसास हूँ मै.
तुझे पहचानूंगा कैसे ? तुझे देखा ही नही ,ढूंढा करता हूं तुम्हे अपने चेहरे में ही कही ।
चखकर देखी है कभी , तन्हाई तुमने ,मैने देखी है, बड़ी ईमानदार लगती है।
कहने वालों का कुछ नही जाता,सहने वाले कमाल करते है ,कौन ढूंढें जवाब दर्दो का ,लोग तो सवाल करते है ।
मै खुद को देता रहूँ तसल्ली, कि मुझ सा तो कोई दूसरा नही है !!
बहुत लंबी खामोशी से गुजरा हूँ में ,किसी से कुछ कहने की कोशिश में।
उलझनों और कश्मकश में..
उम्मीद की ढाल लिए बैठा हूँ..
लुत्फ़ उठा रहा हूँ मैं भी आँख – मिचोली का …. मिलेगी कामयाबी, हौसला कमाल का लिए बैठा हूँ l
ए जिंदगी! तेरी हर चाल के लिए..
मैं दो चाल लिए बैठा हूँ |. चल मान लिया.. दो-चार दिन नहीं मेरे मुताबिक..
गिरेबान में अपने, ये सुनहरा साल लिए बैठा हूँ ये गहराइयां, ये लहरें, ये तूफां, तुम्हे मुबारक …मुझे क्या फ़िक्र.., मैं कश्तियां और दोस्त… बेमिसाल लिए बैठा हूँ…
हम डुबे नहीं जो तुम ताव में हो ,
भूलों मत तुम भी इसी नाव में हो ,
कांच का जिस्म लेकर बैठे हो चौराहे पर , ये क्यो भूल गये तुम भी इसी पथराव में हो !
“ना जाने कितनी अनकही
बातें साथ ले जाएंगे.. .
लोग झूठ कहते हैं कीं.,
खाली हाथ आए थे.,
खाली हाथ जाएंगे…”