एक कवि नदी के किनारे खड़ा था !
तभी वहाँ से एक लड़की का शव
नदी में तैरता हुआ जा रहा था।
कवि ने उस शव से पूछा ……..
कौन हो तुम ओ सुकुमारी,बह रही नदियां के जल में ..
कोई तो होगा तेरा अपना,मानव निर्मित इस भू-तल मे ..
किस घर की तुम बेटी हो किस क्यारी की कली हो तुम ..
किसने तुमको छला है बोलो, क्यों दुनिया छोड़ चली हो तुम …
किसके नाम की मेंहदी बोलो, हांथो पर रची है तेरे ..
बोलो किसके नाम की बिंदिया, मांथे पर लगी है तेरे ..
लगती हो तुम राजकुमारी….
या देव लोक से आई हो ?
उपमा रहित ये रूप तुम्हारा, ये रूप कहाँ से लायी हो ?
कवि की बाते सुनकर…
लड़की की आत्मा बोलती है..
कवि राज मुझ को क्षमा करो, गरीब पिता की बेटी हूँ …
इसलिये मृत मीन की भांती, जल धारा पर लेटी हूँ …
रूप रंग और सुन्दरता ही, मेरी पहचान बताते है …
कंगन, चूड़ी, बिंदी, मेंहदी, सुहागन मुझे बनाते है …
पित के सुख को सुख समझा, पिता के दुख में दुखी थी मैं ..
जीवन के इस तन्हा पथ पर, पति के संग चली थी मैं…
पति को मैने दीपक समझा, उसकी लौ में जली थी मैं …
माता-पिता का साथ छोड, उसके रंग में ढली थी मैं …
पर वो निकला सौदागर, लगा दिया मेरा भी मोल …
दौलत और दहेज़ की खातिर पिला दिया जल में विष घोल ..
दुनिया रुपी इस उपवन में, छोटी सी एक कली थी मैं …
जिस को माली समझा, उसी के द्वारा छली थी मैं …
इश्वर से अब न्याय मांगने, शव शैय्या पर पड़ी हूँ मैं …
दहेज़ की लोभी इस संसार मैं, दहेज़ की भेंट चढ़ी हूँ मैं !
दहेज़ की भेंट चढ़ी हूँ मैं……!!!! Unknown
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