साल भर पहले मोहिनी अपने नये घर में शिफ्ट हुई थी। उसका पति साकेत सरकारी नौकरी में था और बच्चे स्कूल जाते थे। उसी कॉलोनी में एक कुतिया भी रहती थी। भूरे रंग की थी इस लिये सब उसे भूरी कह कर बुलाते थे।
मोहिनी को बचपन से ही जानवरों से विशेष लगाव था। साकेत एक अच्छा इंसान था पर कुत्तों को ले कर थोडा एलर्जिक था। मोहिनी, भूरी को रोज़ दूध रोटी और बिस्कुट देती थी। धीरे धीरे भूरी का लगाव भी मोहिनी से बढ़ गया था क्योंकि पेट भरने के लिये रोटी तो पहले भी उसे मिल जाती थी पर मोहिनी से जो अपनापन मिलता था वो कहीं अन्य नही मिलता था।
मोहिनी का मकान कुछ इस प्रकार था कि मुख्यद्वार के बाद एक बड़ा सा आंगन और उसके बाद कमरे थे। आंगन में ही एक बड़ा पेड़ था जिसकी छाँव में भूरी अक्सर बैठ जाया करती थी।
साकेत को मोहिनी के खिलाने पिलाने से कोई आपत्ति नही थी पर जब भूरी आंगन में आ जाती, साकेत उसे भगा देता। इसीलिए प्रायः भूरी साकेत के ऑफिस जाने के बाद ही आती थी।
भूरी गर्भवती थी और उसका प्रसवकाल नजदीक था। एक दिन दोपहर मोहिनी को दरवाजे पर तीव्र आहट सुनाई दी मानो कोई अधीरता से दरवाज़ा खोलने की कोशिश कर रहा है। खोल के देखा तो भूरी बदहवास सी बिना उसकी अनुमति से घुस आयी और पेड़ के नीचे बैठ गयी। उसका प्रसवपूर्व स्राव शुरू हो चुका था अर्थात प्रसव निकट था।
मोहिनी घबरा गयी, प्रसव से नही बल्कि इस बात से कि यदि भूरी ने घर में पिल्लों को जन्म दिया तो साकेत बुरी तरह भडक जायेगा।
क्या करूं क्या करूं कुछ समझ नही आ रहा था मोहिनी को। इस अवस्था में किसी जीव को भगाना उसे अपने नैतिक मूल्यों के विपरीत लग रहा था और अगर यहीं प्रसव हुआ तो साकेत की प्रतिक्रिया के विषय में सोच कर ही वो तनावग्रस्त थी। तभी भूरी प्रसव पीड़ा से कराहने लगी।
मोहिनी के पास दो रास्ते थे, एक तो इस अवस्था में भूरी को धक्के मार कर निकाले या साकेत के उल्हाने सुने। मोहिनी ने प्रसव पीड़ित माँ की गरिमा की रक्षा करने का निर्णय लिया। क्या हुआ वो एक स्त्री न होकर एक अन्य जीव है।
पीड़ा से कराहती भूरी ने एक के बाद एक तीन पिल्लों को जन्म दिया।
शाम हो चुकी थी। साकेत ऑफिस से लौटा और जैसा प्रत्याशित था भूरी और उसके पिल्लों को देख बिफर गया। जब काफी कुछ बोल चुका था मोहिनी ने सिर्फ एक बात साकेत से बोली
” मुझमे तो हिम्मत नही है इन्हें बाहर फेंकने की तुम से हो सके तो फेंक दो।”
साकेत से भी इस दशा में माँ और उसके पिल्लों को बाहर न फेंका गया।
” ठीक है, जैसे ही पिल्लों की ऑंखें खुलें उनको बहार शिफ्ट कर देना” कह कर साकेत कमरे में चला गया। मोहिनी की ख़ुशी का ठिकाना न रहा।
अगले दिन से वो जुट गयी भूरी की सेवा में। जैसे प्रसव के बाद माँ को देसी घी और मावे के लड्डू खिलाते हैं वैसे ही लड्डू भूरी के लिये बनाये और प्रतिदिन उसे खिलाने लगी। भूरी भी दिन प्रतिदिन स्वस्थ होती जा रही थी।
साकेत जब भी आंगन में आता या गुजरता, भूरी उसकी ओर निवेदन भाव से देखती, मानो कह रही हो कुछ दिन रह लेने दो फिर हम चले जायेंगे। साकेत भी उसके भाव को पढ़ता और बिना प्रतिक्रिया दिये आगे बढ़ जाता।
एक दिन मोबाइल पर बात करते करते साकेत आंगन तक आ गया। ठीक उसी समय एक पिल्ला रेंग कर काफी आगे तक बढ़ गया था। ज्यों ही भूरी ने साकेत को देखा, तुरंत उसे अपने मुह से पकड़ कर अपने स्थान तक ले आयी और क्षमाभाव से साकेत की ओर देखने लगी।
साकेत का दिल पिघल गया और उसने आगे बढ़ कर भूरी के सिर पर हाथ फेर दिया और उसका मनपसन्द बिस्कुट मंगा कर अपने हाथ से खिलाया। भूरी भी पूँछ हिला कर मानो साकेत का अभिवादन कर रही थी।
लगभग एक माह में पिल्लों की ऑंखें खुल चुकी थीं और वे थोडा चलने भी लगे थे। साकेत और मोहिनी ने घर के बाहर एक ईंटों का घर बनवा दिया और भूरी और पिल्लों को उसमें शिफ्ट कर दिया। भूरी भलीभांति यह जानती थी कि चारदीवारी उसके लिये नही है, वह तो महज़ तात्कालिक आश्रय था। अब भूरी अपने पिल्लों को खुले माहौल में जीने का प्रशिक्षण दे रही थी।